बुधवार, 30 दिसंबर 2015

शाख़ें उलझ रही हैं



मेरी कीर्ति फैली जग में मुझे
सब जानते हैं
सब छाँव लेते मुझसे मुझे सब
मानते हैं,
पर इन दिनों क्यों मेरी जड़ें
मुरझ रही हैं,
तनिक सघन हुआ क्या शाख़ें
उलझ रही हैं।।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

एक और दामिनी



एक लड़की मैंने देखी है

जो दुनिया से अनदेखी है

दुनिया उससे अनजानी है

मेरी जानी-पहचानी है।

रहती है एक स्टेशन पर

कुछ फटे-पुराने कपड़ों में

कहते हैं सब वो ज़िंदा है

बिखरे-बिखरे से टुकड़ों में।

प्लेटफॉर्म ही घर उसका

वो चार बजे जग जाती है

न कोई संगी-साथी है

जाने किससे बतियाती है।

वो बात हवा से करती है

न जाने क्या-क्या कहती है

हाँ! एक स्टेशन पर देखा

एक पगली लड़की रहती है।

मैंने जब उसको देखा

वो डरी-सहमी सी सोयी थी

आँखें  उसकी थीं बता रहीं

कई रातों से वो रोई थी।

बैडरूम नहीं है कहीं उसका

वो पुल के नीचे सोती है,

ठंढी, गर्मी या बारिश हो

वो इसी ठिकाने होती है।

वो हंसती है वो रोती है

न जाने क्या-क्या करती है

जाने किस पीड़ा में  खोकर

सारी रात सिसकियाँ भरती है।

जाने किस कान्हा की वंशी

उसके कानों में बजती है

जाने किस प्रियतम की झाँकी

उसके आँखों में सजती है।

जाने किस धुन में खोकर

वो नृत्य राधा सी करती है

वो नहीं जानती कृष्ण कौन

पर बनकर मीरा भटकती है।

उसके चेहरे पर भाव मिले

उत्कण्ठा के उत्पीड़न के,

आशा न रही कोई जीने की

मन ही रूठा हो जब मन से।

है नहीं कहानी कुछ उसकी

पुरुषों की सताई नारी है

अमानुषों से भरे विश्व की

लाचारी पर वारी है।

वो पगली शोषण क्या जाने

भला-बुरा किसको माने

व्यभिचार से उसका रिश्ता क्या

जो वो व्यभिचारी को जाने?

वो  मेरे देश की बेटी है

जो सहम-सहम के जीती है

हर दिन उसकी इज्जत लुटती

वो केवल पीड़ा पीती है।

हर गली में हर चौराहे पर

दामिनी दोहरायी जाती है,

बुजुर्ग बाप के कन्धों से

फिर चिता उठायी जाती है।

कुछ लोग सहानुभूति लिए

धरने पर धरना देते हैं,

गली-नुक्कड़-चौराहों पर

बैठ प्रार्थना करते हैं,

पर ये बरसाती मेंढक

कहाँ सोये से रहते हैं

जब कहीं दामिनी मरती है

ये कहाँ खोये से रहते हैं।

खुद के आँखों पर पट्टी है

कानून को अँधा कहते हैं

अपने घड़ियाली आंसू से

जज्बात का धंधा करते हैं।

जाने क्यों बार-बार मुझको

वो पगली याद आती है,

कुछ घूँट आँसुओं के पीकर

जब अपना दिल बहलाती है।

उसकी चीखों का मतलब क्या

ये दुनिया कब कुछ सुनती है

यहाँ कदम-कदम पर खतरा है

यहाँ आग सुलगती रहती है।

हर चीख़ यहाँ बेमतलब है

हर इंसान यहाँ पर पापी है,

हर लड़की पगली लड़की है

पीड़ा की आपाधापी है।




शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

राधिका काकी

राधिका काकी नहीं रही। ये भी कोई जाने की उम्र होती है क्या? बमुश्किल अभी पैंतालीस-छियालीस साल ही तो उम्र रही होगी और इतने कम उम्र में ही दुनिया को अलविदा कहना कुछ हज़म नहीं हुआ। भले ही उम्र कम थी पर अपने तीन पोते देख कर गयी।भरा-पूरा परिवार छोड़ कर गयी।तीन बेटे और एक छोटी सी दस-बारह बरस की बेटी। गांव में कुछ हो न हो शादी पहले हो जाती है। लड़कियाँ बहु बनकर घर में आती हैं वो माँ बन कर आई थी। मौसी तो पहले से थी पर इस बार माँ बन कर आई। पवन कुमार की माई हाँ वो अपने ससुराल इसी पहचान के साथ आई। कुछ साल बाद परदेसी पैदा हुए। क़रीब दस साल बाद मक्कूऔर फिर बिक्की। यानि तीन लड़के और एक बेटी। भरा पूरा परिवार। बड़ी बहु आई। पोते हुए। जिस उम्र में बड़े घर की लड़कियों की शादी होती है उसी उम्र में वो दादी बनी। मज़ाल क्या बहु पोतों को डाँट दे। परदेसी की भी शादी हुई। अवध में गौने का रिवाज़ होता है। अभी इसी साल शादी हुई है पर गौना नहीं आया है। बहू के आने की तैयारियाँ चल रही थीं कि सारी की सारी तैयारियां धरी की धरी रह गईं। बेटे के गौने की तैयारी थी पर खुद ही दुनिया से विदा ले ली।
मेरे मीता (काकी के पति) की दो शादियाँ हुईं। पहली पत्नी बड़े बेटे के जन्म के कुछ साल बाद ही स्वर्ग सिधार गई। फिर दूसरी शादी राधिका काकी से हुई। मीता मेरे पापा से बड़े हैं पर हमारे घर के हर बच्चे के वो मीता(दोस्त) बन जाते हैं। मीता हैं बहुत ज़िंदादिल इंसान। अल्हड़......मस्त। पापा के कॉलेज के दिनों के अच्छे साथी रहे। फिर रोज़ी-रोटी की तलाश में मुम्बई यात्रा।फिर वहीं एक अलग दुनिया बनी। मीता के साथ सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये रहा कि वे न तो अपनी पहली पत्नी को अंतिम विदाई दे सके, न माँ को और न ही पिता को...और जाते-जाते काकी को भी न देख सके। कल भी वो मुम्बई में ही थे.....अब गांव जा रहे हैं। बड़ा बेटा पवन भी दिल्ली से निकल चुके हैं शायद घर पहुँच भी गए होंगे। आज ही अंतिम विदाई है।
दुनिया छोड़ने के आधे घण्टे पहले तक बिलकुल स्वस्थ थी। मधुमेह था पर नियंत्रण में था। अम्मा और मम्मी से घण्टों बातें की फिर अम्मा से कहा कि- "अम्मा अब हम जाइत है।"
घर गई फिर अचानक से दर्द उठा। बहू को बुलाकर कहा कि- "साँस नाहीं लै पाइत है। अब हम बचब नाहीं। लड़िकन के सम्हारे।"(अब मैं बचुँगी नहीं, बच्चों की देख-भाल ठीक से करना)।
अंतिम यात्रा तक यही कहानी थी। अभिनय पूरा हो चुका था...पटकथा में अब कोई संवाद बाक़ी नहीं रहा। पर्दा गिर गया। अंत्येष्टि की तैयारी हो रही है....बड़ा बेटा अब तक घर पहुँच चुका होगा।
मेरी बहिन ने मुझे मैसेज़ किया कि भैया पवन कुमार भइया की मम्मी मर गईं। सन्न रह गया। आंसू आ गए। हमारे परिवार से उसे बहुत प्यार था। हमें भी बहुत मानती थी। जब गांव पहुँचता था तो देखते ही खुश हो जाती थी। यही कहते हुए बुलाती- अरे हमार बाऊ! आइ गयो लाला।
आज दुःख हो रहा है। कल आंसू रोक नहीं सका। काकी अब नहीं है। दुःख सिर्फ इस बात का है कि अभी मक्कू और बिक्की बहुत छोटे हैं। माँ के बिना तो एक पल भी जीना मुश्किल होता है इन्हें तो माँ छोड़ कर चली गई। कल अम्मा काकी को देखने गई थी। मक्कू अम्मा के पैर पकड़ कर रोने लगा।अम्मा काँप उठी। घर फोन किया तो अम्मा ने उदास मन से सब कुछ कहा।
दो छोटे बच्चे जिन्होंने अभी दुनिया भी ठीक से दुनिया भी नहीं देखी उनके लिए ये आघात सहना कितना वेदना पूर्ण है। माँ। बहुत दुःखी है।
अजीब सी ज़िन्दगी है कब ख़त्म हो जाये पता ही नहीं चलता।
रह जाती हैं तो बस यादें। बहुत धोखेबाज़ ज़िन्दगी है। कुछ भरोसा नहीं इसका....जो लम्हा सामने है वही सब कुछ है। अगल-बगल सब कुछ ख़्वाब। कुछ भी शाश्वत नहीं..... ज़िन्दगी भी किसी सपने की तरह है.....आँख खुली सपना टूटा.....पता नहीं क्या है ज़िन्दगी।
किसी शायर ने सच ही कहा है-

ज़िन्दगी क्या है?
फ़क़त मौत का टलते रहना।।

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

प्रिये तुम्हारे प्रेम पाश ने.





प्रिये तुम्हारे प्रेम-पाश ने इस हिय का अवकाश किया,

तुमने क्या जादू कर डाला धरती को अकाश किया।।

जब से जीवन में तुम आई जीवन-दर्शन समझ लिया

तुम्हें ही अपना सब कुछ माना तुमको दर्पण समझ लिया।

तुम मुझमे प्रतिविम्बित होती हर-पल ये आभास हुआ

तुम बिन बहुत अधूरा हूँ मैं अब मुझको आभास हुआ

प्रिये तुम्हारे.....

रातों में नींदों को तजकर मैंने तुम पर गीत लिखे

तुमको डच तो जग सोचा सर भूमि में प्रीत लिखे

चलते चलते खो जाता हूँ बैठे-बैठे सो जाता हूँ

कभी तुम्हारी सुधि जो आई हँसते-हँसते रो जाता हूँ

योगी बन मैं दर-दर भटका कान्हा पर विश्वास किया

प्रिये तुम्हारे....

प्रिये तुम्हारे सुन्दर मन ने मेरे मन को मोह लिया

जिस पथ से तुम आती-जाती उसी राह की टोह लिया,

जहाँ-जहाँ मेरे पग जाएँ वहां तुम्हारे चरण चिन्ह हों

तुम मेरी मैं बना तुम्हारा तुम मुझसे न तनिक भिन्न हो

मैं अँधेरे का प्रेमी था तुमने सहज प्रकाश किया

प्रिये तुम्हारे प्रेम पाश ने....




शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

माँ जब तू याद आती है

यहाँ जब रात होती है तो मैं अक्सर सिसकता हूँ
                                                माँ! जब तू याद आती है मैं दुनिया भूल जाता हूँ,
                                                  झुकी हैं नीम की शाख़ें मेरे कॉलेज की राहों में
                                                जिन्हें बाँहें समझ तेरी मैं अक्सर झूल जाता हूँ।।
                                                                                                             -अभिषेक