बुधवार, 29 अप्रैल 2015

बस यूँ ही :)

किसी की आँख में काजल
किसी की आँख है काजल
किसी के जुल्फ में  बादल
किसी की ज़ुल्फ़ है बादल
किसी के रुह में मैं हूँ
किसी का रुह हूँ अब मैं
दीवाने दिल की साजिश ने
किया मुझको बहुत पागल।।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

इंतज़ार!(लौट आओ न!)

उन अधूरी बातों का क्या
जो निकलते ही नहीं
हलक से,
कहीं तो-कभी तो
पूरी हों
ये हसरतें
न जाने क्यों
उम्मीदें अधूरी रह जाती हैं;
तुम थे
वक्त ठहरा था
हवा, फ़िज़ा, बादल
सब साथ थे
तुम गए तो कुछ न रहा
साँस चलती है
किसी तरह
तुम्हारे बिन,
अगर ये ज़िन्दगी है
तो
समझ लो ज़िंदा हूँ;
इन अधूरी धड़कनों का क्या
जिस दिन भी
धड़कना बंद कर दें
फिर कौन तुम
 कौन हम?
सब कुछ स्थिर
शून्य
अड़िग,
न धड़कने रूकती है
न साँस
शायद इन्हें भी
इंतज़ार है
तुम्हारे आने का
कितने पागल हैं न हम
जो
इंतज़ार करते हैं।

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

अवसरवादी राजनीति

भारतीय राजनीति अवसरवादिता कीराजनीती है.यहाँ मुद्दों को भुनाने की कवायद चलती है.राजनीतिक पार्टियां जनता की नस पकड़ने में सिद्धहस्त हैं.विरोधियों के हर गतिविधि पर इनकी बड़ी पैनी नज़र होती है.इन दिनों सबसे ज्वलंत मुद्दा किसानो की दुर्दशा है.आम जनता की कोई पार्टी हितैषी नहीं है.चाहे वो भाजपा हो या कांग्रेस हो या अन्य प्रादेशिक पार्टियां हों. सबका बस एक मकसद होता है कि कैसे जनता को उल्लू बनाया जाए,बेवक़ूफ़ जनता हर बार उल्लू ही बनती है.राजनीतिक पार्टियों को पता है कि जनता को भावनाओं में कैसे बहाया जाता है उनसे कैसे सहानुभूति ली और दी जाती है?

जिस जनता के भरोसे सत्ता हासिल होती है सत्ता में आते ही उसी जनता को भूलना हर पार्टी अपना राजधर्म
मानती है. राहुल गांधी जी का महीनो के गुमनाम प्रवास के बाद अचानक से किसानों के हमदर्द बनकर रामलीला मैदान में जनसभा करना कितनी सोची समझी रणनीति लगती है? उनके प्रवास से पहले ही केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून पर अपना रुख साफ़ कर दिया था तब कांग्रेस पार्टी चुप क्यों थी? कई महीनो के आत्ममंथन के बाद राहुल गांधी को किसानों की पीड़ा दिखी? तब मौन क्यों थे? धरना क्यों नहीं दिए? क्या इतने महीने गायब रहने के बाद किसी एक्टिंग स्कूल से एक्टिंग सीख कर भारतीय जनता के सामने अपने अभिनय की कला दिखाने आये हैं? महीनो से सोयी पड़ी कांग्रेस पार्टी मुद्दे भुनाने की ताक में लगी है, राम लीला मैदान में उमड़ी अथाह भीड़ इस बात इस साक्षी है की जनता मोदी सरकार से चोट खायी हुई है और अब अपना उद्धारक कांग्रेस में देखने की हिम्मत कर रही है. दिल्ली में रामलीला मैदान का दृश्य बड़ा हास्यास्पद रहा.जिन्होंने सपने में भी खेत नहीं देखा है उनके कन्धों पर हल देखकर जनता असमंजस में पड़ गयी कहीं कांग्रेस के युवराज राजनीति से सन्यास लेकर किसानी तो नहीं करने जा रहे? खैर कुछ देर बाद उन्होंने खुद ही हल को बैकग्राउंड में भेज दिया और किसानों को संकेत भी दिया कि सत्ता में लौटते ही हमकिसानों को बिलकुल भारतीय जनता पार्टी की तरह बैकग्राउंड में भेजेंगे.क्या शानदार वापसी है कांग्रेस पार्टी की.मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, सोनिया गांधी सारे शिखर के नेता जमीन पर जनता केसाथ, क्या अद्भुत सयोंग था. कांग्रेस पार्टी
का ये सियासी ड्रामा हफ़्तों चैनलों की टी.आर.पी बढ़ाएगा.अख़बारों में सुर्खीयों में
राहुल गांधी कुछ दिन तक रहेंगे. जनता की नब्ज़ पकड़ना इसे कहते हैं.सत्ताधारी पार्टी कितनी भी विनम्रता से अपनी बात भले ही क्यों न कहे पर विपक्ष की कड़वी बात भी जनता को सत्ताधारी पार्टी की बातों के
अपेक्षा मीठी लगती है.मोदी सरकार से जनता के रूठने की वजह सिर्फ यही नहीं है की वादे पूरे नहीं किये गए तथ्य यह है कि किसानो की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये गए.किसानों की आत्महत्याएं नहीं रुकीं, बैंकों ने उन्हें कोई राहत नहीं दी फिर काहे की सरकार? जिन उम्मीदों के लिए जनता ने मोदी को चुना उन्ही उम्मीदों का गला घुटते जनता देख रही है.विपक्ष में बैठी हर पार्टी स्वयं को किसानों का सच्चा हमदर्द कहती है, जब तक विपक्ष में बैठती है तबतक जनता की सेवा राजधर्म होता है किन्तु सत्ता हथियाते ही किसान विपक्ष के विषय हो जाते हैं. भारतीय जनता ऊब कर वोटर करती है. एक से मार खाती है तो दुसरे को गले लगाती है. चुनाव उम्मीदों का गला घोटने के लिए कराये जाते हैं.इस राजनीति ने जनता को हर बार छला है.क्या छला जाना ही भारतीय जनता की नियति है? मोदी सरकार की आम जनता के प्रति भावनाएं दिख रही हैं, मेक इन इंडिया का नारा गले के निचे नहीं उतर रहा है.ये निःसंदेह उद्योगपतियों की सरकार है. राहुल गांधी का अचानक से ह्रदय परिवर्तन हो किसान प्रेमी होना कुछ जम नहीं रहा है. एक बड़ा तबका उन्हें आज भी युवराज सम्बोधित करता है तो फिर भला प्रजातंत्र में राजशाही का क्या काम? केंद्र सरकार को पग यात्रा की
धमकी देकर डराना जनता को छलना ही है,जनभावना भाषणों से अर्जित नहीं की जा सकती, कांग्रेस पहले जनता की पसंद बने फिर प्रतिनिधि बनने की कोशिश करे नहीं तो परिणाम फिर शून्य के आसपास हो तो कुछ
भी अप्रत्याशित नहीं होगा. मोदी सरकार अच्छे दिनों का राग अलाप रही है बेहतर होगा अपने राजनीतिक एजेंडे में सुधार करे नहीं तो जनता अगले चुनाव में विपक्ष की राह भारतीय जनता पार्टी को दिखाने में देर नहीं लगाएगी.

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

पागलपन

साँसों में बसी हो तुम इसका इकरार
क्या करना?
मोहब्बत हो गयी तुमसे तो अब इनकार क्या
करना?
जमाना कह रहा मुझको दिवाना क्या
तुम्हे मालुम?
दीवानेपन की हालत में भला इज़हार
क्या करना?

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

a slap on the god.

Administration is most retractable thing in india specially for educational institutions.
They became an institution for minting money rather than a temple of knowledge.
In every educational institutions there is a need of strict administration to resolve problems which are often arises by ruffian students and local mobsters.
In every institution a group of disturbing elements always present to create hindrances for those students who are Innocent or outsiders.they are compelled to tolerate hooligans to keep their study well.
In our nation regionalism is one of the main social problem. Some time regionalism become a cause of quarrel. A person who is outsider has to face all discrimination and
Satires on linguistic bases.
Zonary students think that they have blessed with special privileges by mother earth to dominate extraneous. Police always boost them for doning so instead take appropriate action against them.
In my college a student slapped a teacher when he was scolded in class room, how much it was humiliating for him?
My college's disciplinary Committee didn't took any strict action againest the culprit. He regularly attend the college and my college allowed him to attain the classes.
The director of my college complained to disciplinary Committee for suspension of the offender but management always needs money rather than discipline. Management haven't any intention to punish perversity.
This is very common in every educational institutions. Teachers are disobeyed, they have lost their respect and reputation.
Girls are the nation maker's but they are abused, many students outrage their modesty, mobster who's direct approach with management often passed obscene comment on them.
College became open place for battle, quarrels are normal in college campus.
Security guards feel fear to do any action because of their own security, they Know very well what will consequences if they beats Zonary students.
I am very curious to Know which kind of heroics is to slap a teacher or To beat an Innocent student or to beat an outsider student and to do outrageous activities towards a college going girl?
Our college authorities can mint money easily but never earn respect from students who are victims of tolerance.
Making shirdi temple in college campus wouldn't help you to achieve a safe space in heaven.
In hindu methodology it is to be believed that a teacher is a guide of the path of the god that's why he deserve much more respect than god. A teacher is most respectable person on the earth but in my college situations are adverse.
If a teacher is slapped then god will automatically slapped. There is no need of temple so please vandalize it.
After spending four years in Meerut i came to realize educational institutions are established only for minting money, education is a mere breach of dreams of students who believes that college will make their future bright. College can frustrate you but nothing else.
shame on you culprits! You are the culprits of future of india.

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

कश्मीर की समस्या

कश्मीर में इन दिनों जो हो रहा है उसे देखकर
संदेह होता है कि हमारा देश वास्तव में एक
सम्प्रभु राष्ट्र है अथवा टुकड़ों में बाटे भू-
भागके अतिरिक्त और कुछ नहीं जहाँ
सियासत के नाम पर देश तक की सौदेबाज़ी
होती है।कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर
का नासूरजो हमारे समर्थ होने के कल्पित
आभास पर एक काला धब्बा है असीम कष्ट
देता है तोकभी जम्मू और कश्मीर के
नागरिकों का पाकिस्तान प्रेम जो हमें
भीतर से खोखलाकरता है । पाकिस्तान
वर्षों से अपनी आतंकी और कुटिल छवि को
बरक़रार रखे हुए है। अक्सर अपने कुटिलता का
सबूत भी देता है। बात चाहे१९६५ की हो या
१९७१ और १९९९ के कारगिल युद्ध की हो
पाकिस्तान ने अपनी सधी-सधाई फितरत को
हर बार अंजाम दिया है।बेशर्म इतना है कि
तीन बार करारी हार के बाद भी लड़ने का
एक मौका नहीं छोड़ना चाहता। कश्मीर का
भारत में विलय होना पाकिस्तान की नजरों
में हमेशा खटकता है कि कैसे एक मुस्लिम
बाहुल्य प्रांत एक हिन्दू बाहुल्य राष्ट्र का
हिस्सा हो सकता है?कौनसमझाए इन
पाकिस्तानियों को राष्ट्र धर्म से नहीं
सद्भावना से से बनता है। ये तो पाकिस्तान
की बात हुई अब भारत की बात करते हैं। ऐसा
क्या है जो आजादी के छः दशक बाद भी
'जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में
अस्थायी उपबन्ध' अनुच्छेद ३७० आज तक हट न
सका या संशोधित न हो सका?एक राष्ट्र
और ''दो संविधान" सुनकर कितना बुरा
लगताहै न? अधिकतर 'एक्ट' जो भारत सरकार
पास करती है वे जम्मू और कश्मीर में शून्य होते
हैं। आप कुछ महत्वपूर्ण एक्ट्स के सेक्शन पढ़ सकते हैं
उनमे अधिकतर जम्मू और कश्मीर में अप्रभावी
होने की बात कही गयी है। उदहारण के लिए
"भारतीय दण्ड संहिता" के धारा 1 को देखते
हैं- संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का
विस्तार- यह अधिनियम भारतीय
दण्डसंहिता कहलायेगा और इसका विस्तार
जम्मू- कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत
पर होगा। भारत के सबसे बड़े और प्रभावी एक्ट
का ये हाल है तो सामान्य एक्ट्स की बातही
क्या की जाए। यह कैसी संप्रभुता है भारत देश
की? किसी राज्य को विशेष दर्जा कब तक
दिया जाना उचित है? जवाब निःसंदेह यही
होगा कि जब तक वो प्रदेश सक्षम न हो
जाए। अब किस तरह की सक्षमता का इंतज़ार
देश को है? एक देश और दो संविधान क्यों है?
कहीं न कहीं यह हमारे तंत्र की विफलता है
कि हम अपनों को अपना न बना सके। कश्मीर
के निवासियों से पूछा जाए कि आपकी
राष्ट्रीयता क्या है तो अधिकांश लोगों
का जवाब होगा 'कश्मीरी'। अपने आपको
भारतीय कहना शायद उनके मज़हब और मकसद
की तौहीन होती है। हमारे देश के नागरिक
होकर उनका पाकिस्तान प्रेम अक्सर छलक
पड़ता है ख़ास तौर से जब कोई पाकिस्तानी
नेता भारत आये या भारत और पाकिस्तान
का क्रिकेट मैच चल रहा हो, कश्मीरी
नौजवानों को पाकिस्तान जिंदाबाद के
नारे लगाने का मौका मिल जाता चाहे वो
कश्मीर में हों या दिल्ली एअरपोर्ट पर या
मेरठ के सुभारती विश्वविद्यालय में।
कश्मीरियों का लगाव पाकिस्तान से कुछ
ज्यादा ही है क्योंकि अराजकता और
जिहाद का ठेका पाकिस्तान बड़े मनोयोग
से पूरा करता है संयोग से अलगाव वादियों
को पाकिस्तान भरपूर समर्थन भी दे रहा है
और ज़िहाद के नाम पर मुस्लिम युवकों को
गुमराह भी कर रहा है।७० हूरों के लिए ७००
लोगों को बेरहमी से मारना केवल यहीं
जायज हो सकता है।अलगाव वादियों की
ऑंखें पाकिस्तान केआतंरिक मसलों को देख कर
नहीं खुलतीं; राजनीतिक अस्थिरता, गृह युद्ध
कीस्थिति, आतंकवाद और भुखमरी के अलावा
पाकिस्तान में है क्या? एक अलग राष्ट्र की
संकल्पना करने वाले लोग गिनती के हैं पर
उनकेसमर्थन में खड़ी जनता को भारत का प्रेम
नहीं दिखता या आतंकवाद की पट्टी आँखों
को कुछ सूझने नहीं देती। कश्मीर के कुछ
कद्दवार नेता हैं जिनके बयान अभिव्यक्ति के
नाम पर छुब्ध करते हैं।अनुच्छेद ३७० विलोपन के
सम्बन्ध में बहस पर उनकी दो टूक प्रतिक्रिया
होती है कि यदि ऐसा होता है तो 'कश्मीर
भारत का हिस्सा नहीं होगा' ऐसी
प्रतिक्रिया आती है, भारतीय संप्रभुता पर
इससे बढ़कर और तमाचा क्या होगा? केंद्र
सरकार कब तक विश्व समुदाय के भय से अपने
ही हिस्से को अपना नहीं कहेगी? अनुच्छेद
३७० को कब तक हम "कुकर्मो की थाती की
तरह ढोएंगे? एक भूल जो नेहरू जी ने की थी कि
अपने देश की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले
गए और दूसरी भूल हमारी सरकारें कर रही हैं
जो कल के भूल को आज तक सुधार नहीं पायी
। हमारे आतंरिक मसले में भला तीसरे संगठन का
क्या काम? भारत सरकार जम्मू-कश्मीर की
सुरक्षा के लिए अरबों पैसे खर्च करती है पर बदले
में क्या मिलता है, सैनिकों की नृषंस हत्या?
जनता का दुत्कार और उपेक्षा? सुनकर हृदय
फटता है कि सैनिकों की हत्या के पीछे सबसे
बड़ा हाथ वहां की जनता का है। जो उनकी
हिफाज़त के लिए अपनों से दूर मौत के साए में
दिन-रात खड़ा है उसे ही मौत के सुपुर्द कर
दिया जाता है। क्या हमारे जवानों के
शहादत का कोई मतलब ही नहीं? कब तक
हमारे सैनिकों का सर कटा जाएगा? कब तक
भारतीय नारी वैधव्य की पीड़ा झेलेगी
सियासत की वजह से? कम से कम शहादत पर
सियासत तो न हो। हमेशा देश के विरुद्ध
आचरण करने वाली जम्मू-कश्मीर की प्रदेश
सरकार जो कुछ दिन पहले तक सत्ता में थी जब
महाप्रलय आया तो हाथ खड़े कर दिया और
केंद्र सरकार से मदद मांगी। सेना ने अपने जान
पर खेल कर कश्मीरियों की जान बचाई पर
सुरक्षित होने पर प्रतिक्रिया क्या मिली?
सैनिकों पर पत्थर फेंके गए, जान बचाने का
प्रतिफल इतना भयंकर? कभी-कभी
कश्मीरियों की पाकिस्तान-परस्ती देख कर
ऐसा लगता है कि ये हमारे देश के हैं ही नहीं,
फिर हम क्यों इनके लिए अपने देश के जाँबाज़
सैनिको की बलि देते हैं? एक तरफ पाकिस्तान
का छद्म युद्ध तो दूसरी तरफ अपनों का
सौतेला व्यवहार आम जनता को कष्ट नहीं
होगा तो और क्या होगा? अनुच्छेद ३७० का
पुर्नवलोकन नितांत आवश्यक है और विलोपन
भी अन्यथा पडोसी मुल्क बरगला कर
कश्मीरियों से कुछ भी करा सकता है
अप्रत्याशित और बर्बरता के सीमा से परे। एक
तरफ हमारा पडोसी मुल्क चीन है जो
सदियों से स्वतंत्र राष्ट्र "तिब्बत" को अपना
हिस्सा बता जबरन अधिकार करता है तो
दूसरी ओर हम हैं जो अपने अभिन्न हिस्से पर
कब्ज़ा करने में काँप रहे हैं। यह कैसी कायरता है
जो इतने आज़ाद होने के बाद भी नहीं मिटी।
दशकों बाद भारत में बहुमत की सरकार बनी
है,वर्षों बाद कोई सिंह गर्जना करने वाला
व्यक्ति प्रधान मंत्री बना है तो क्यों न
जनता के वर्षों पुराने जख़्म पर मरहम लगाया
जाए कौन सी ऐसी ताकत है जो भारत के
विजय अभियान में रोड़ा अटका सके?
आज़ादी के इतने वर्षों बाद कोई तो
निर्णायक फैसला होना चाहिए, सैनिकों के
शहादत का कोई प्रतिफल आना चाहिए।
भारतियों को बस एक ही बात खटकती है कि
देश एक है, संप्रभुताएक है, राष्ट्रपति और
प्रधानमंत्री एक हैं पर संविधान अलग-अलग
क्यों है? एक देश में दो संविधान क्यों है?

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

किसान का दर्द


किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। एक किसान दिन-रात एक करके अन्न उपजाता है जिससे देश वासियों को दो वक्त की रोटी मिलती है। उद्योग-धंधों से जेब भर सकती है पेट नही, पेट भरने के लिए खेत चाहिए जिसे सुरक्षित रखना सरकार का दायित्व है किन्तु सरकार तो भूमि अधिग्रहण कानून के प्रवर्तन में व्यस्त है।
 देश में जब भी चुनाव का मौसम आता है तो किसानो को बारिश से ज्यादा आस सरकार से होती है पर सरकार तो अपने फायदे के लिए काम करती है चाहे वो राज्य सरकार हो अथवा केंद्र सरकार हो। किसानों के हिस्से में हमेशा कर्ज़ आता है जिसे चुकाने के चक्कर में किसान कभी जमीन बेचता है तो कभी ज़मीर।
बैंक उद्योगपतियों को करोड़ों रुपयों के लोन पास कर देता है और वसूली के लिए कोई जल्दी भी नहीं करता पर किसान सही समय पर पैसे न दें तो उनकी जमीन की कुर्की या निलामी करने पहले पहुँच जाता है। एक किसान जब लोन लेने जाता है तो उसके नाम लोन तब तक पास नहीं होता जब तक कि बैंक वाले अपना हिस्सा न वसूल लें।

Published on 20th april on dainik jagran
एक लाख रुपयों का लोन है तो पच्चीस हज़ार तो बैंक वाले घूस खा जाते हैं। एक किसान हर जगह शोषित होता है। उसके लिए उसके शोषित होने की वजह किसान होना नहीं है अपितु गरीब होना है। भारत में समता कहीं नहीं है। गरीबी उन्मूलन के दावे करके पार्टियां वोट बटोरती हैं और जैसे ही सत्ता में आती हैं सरकार अमीरों की हो जाती है। भारतीय जनता हर बार छली गई है। अच्छे दिनों की चाह में बुरे दिन कब गले पड़ते हैं पता ही नहीं चलता।
पिछले कुछ सप्ताह से उत्तर भारत में बारिश के कहर ने भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों का ध्यान भटका दिया है। बारिश और बिल के कशमकश में तड़पता किसान इतना व्यथित है कि किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। बिन मौसम बरसात ने फसलें चौपट कर दी हैं। गेहूं की फसल एक बार के बारिश से बर्बाद हो जाती है खासतौर से जब फसल पक गयी हो तो फसल बर्बाद होने का खतरा और बढ़ जाता है। दुर्भाग्य से बारिश ने अपना काम कर दिया है और सरकार भी काम के समापन के दिशा की ओर उन्मुख है।
सरकार खुद को किसानो का मसीहा भले ही कह रही हो पर किसानो के मन में सरकार की अलग ही छवि बन रही है। भारत में विकास के लिए सरकार यदि भूमि अधिग्रहण बिल की जगह किसान सुधार बिल लाती तो तो देश की अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ होती और विकास के नए आयाम भी पैदा होते।
पिछले कुछ वर्षों से किसान कृषि कार्यों  की जगह आत्महत्या कर रहे हैं। वहज भी है। कृषि के लिए लोन लेना और फिर वापस न कर पाना, कभी अति वृष्टि तो कभी अना वृष्टि, कभी सूखा तो कभी बाढ़, सीमित संसाधन और अपेक्षाएं दर्जन भर, एक किसान कितना दर्द झेलता है और इस दर्द की दवा के लिए जब सरकार से उम्मीद करता है तो उस पर थोप दिया जाता है कोई न कोई नया बिल। 
सरकार क्यों नहीं समझती की बिल से ज्यादा जरूरी है बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ती। कृषि योग्य जमीनों पर सिंचाई की उचित व्यवस्था हो, खाद, बिजली की व्यवस्था हो, कृषि हेतु लिए गए ऋण में ब्याज़ की दरें कम हों तथा फसलों के विक्रय के लिए उचित बाजार हो। सरकार यदि बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराये तो उद्योगपतियों से कम कर किसान नहीं देंगे। आज भी भारत की सबसे ईमानदार कौम किसान ही है। सरकार किसानों के विकास के लिए कुछ नहीं कर रही है लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल पर उनका समर्थन और सहमति दोनों चाहती है। यह कैसा न्याय है?
किसान के लिए खेत कमाऊ पूत होता है पर इस पूत पर हज़ार भूत चढ़े रहते हैं। कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी आंधी कभी पानी और कभी जंगली जानवरों का प्रकोप। एक अनार और सौ बीमार वाली दशा होती है किसान की, फिर भी सरकार का मन पसीज नहीं रहा, किसान के कलेजे के टुकड़े को बिना छीने चैन कहाँ मिलेगा?
पिछले एक दशक से किसानों की संख्या तेजी से घट रही है। वजह भी है। लगातार घाटे सहना मुश्किल काम है और किसान तो वर्षों से घाटे ही खा रहा है। सारे व्यवसाय सफल हैं पर कृषि व्यवसाय निरंतर घाटे में है ऐसी दशा में किसानों की कृषि के प्रति उदासीनता प्रत्याशा से परे नहीं है।
 एक किसान अपने बच्चों को कभी किसान नहीं बनाना चाहता क्योंकि उसे पता है इस क्षेत्र में नुकसान ही नुकसान है। सरकार कृषि योग्य भूमि को भी आवासीय भूमि करार देकर कब छीन ले पता नहीं। इसलिए कैसे भी करके कामयाब बन जाओ चाहे ज़मीन बिके या ज़मीर, पर कामयाबी मिलनी चाहिए। किसानी तो नाकामयाबी का दूसरा नाम है।
कभी ऐसा कहा जाता था कि किसान कभी बेरोजगार नहीं हो सकता पर आज ये रोजगारी सांत्वना लगती है। कृषकों के पास कोई विकल्प नहीं है कृषि के अलावा, अन्यथा खेती से तो अब तक सन्यास ले चुके होते। सरकार किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है, लेकिन इस दिशा में कोई काम सरकार को नहीं करना क्योंकि ये तो उद्योगपतियों की सरकार है।

कहने के लिए तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, ग्रामीण भण्डारण योजना जैसे अनेक उपक्रम हैं पर दुर्भाग्य से ये योजना बनकर ही रह गए। सूचनाओं पर गौर करें तो इन योजनाओं से लाभान्वित होने वाले किसान गिनती के हैं। इस सरकार से अच्छे दिनों की उम्मीद थी पर अच्छे दिन तो कहीं गायब हो गए हैं।
जब कोई कृषक किसान क्रेडिट कार्ड बनवाता है ऋण लेकर खेती करने के लिए तो डर लगता है; कहीं ऋण चुकाने के लिए जमीन न बेचनी पड़े क्योंकि मैंने अपने आस-पास यही देखा है। पहले किसान ऋण लेता है इस उम्मीद में कि वो ऋण खेती से ही चुका देगा पर खेती तो हर बार दगा देती है, समय बीतता जाता है और ब्याज बढ़ता जाता है फिर इसकी कीमत किसान को अपनी जमीन बेच कर चुकानी पड़ती है या परिवार सहित ख़ुदकुशी करके। मेरे देश के अन्नदाता की यही व्यथा है की परोपकार में सारा जीवन बिता देते हैं पर उनके जीवन के सुरक्षा की चिंता किसी को भी नहीं होती।
किसान आज भी परम्परागत खेती में विश्वास करते हैं। नए प्रयोग से डरते हैं क्योंकि न तो उनकी मदद के लिए कोई कृषि विशेषज्ञ आगे आते हैं न किसान मित्र जैसी कोई संस्था। पुराने ढर्रे को छोड़कर किसान जब तक नई पद्धतियों की ओर  ध्यान नहीं देंगे तब तक उनके अच्छे दिन नहीं आने वाले। पर नई तकनीक किसानों तक तब पहुंचेगी जब उन्हें इसके बारे में बताया जायेगा। जब सरकार किसानों की समस्याओं पर ध्यान देगी। बैंक सस्ते ब्याज़ पर लोन देंगे और लोन चुकाने के लिए पर्याप्त समय भी। एक सीमा तक के लिए शून्य ब्याज़ दर पर लोन किसानों को मिलनी चाहिए तभी किसान देश के विकास में सक्रिय भागीदारी निभा सकते हैं।
भारत में फसल बीमा से लगभग सारे किसान अनभिज्ञ हैं। इसी तरह पशु बीमा से भी। बीमा कंपनियों को चाहिए कि जनता को इस विषय से अवगत कराएं कि अब फसलों की भी बीमा होती है। किसी प्राकृतिक प्रकोप की दशा में भी बीमा कंपनी किसानो की सच्ची हितैषी बन उनके साथ खड़ी हैं। इससे किसानों का मनोबल बढ़ेगा और वे बेहतर विधि से खेती करने के लिए तत्पर रहेंगे।
किसानों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को प्रयत्न करना चाहिए तथा कृषि की बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए आगे आना चाहिए तभी किसान सुरक्षित रहेंगे और देश में अनाज आपूर्ति संभव हो सकेगा। देश तभी विकसित होगा जब किसान विकसित होंगे। 
केंद्र सरकार को ये आभास क्यों नहीं हो रहा है कि देश को भूमि अधिग्रहण बिल की नहीं किसान सशक्तिकरण की आवश्यकता है।
भारत आज भी गाँव में बसता है।
और गाँव में किसान बसते हैं जो भारत की शान हैं, अन्नदाता हैं यदि जमीन नहीं रहेगी तो अनाज कहाँ से आएगा? 
इतने जुल्म हम पर न करो सरकार! जीने का हक़ हमें भी है। देश के भाग्यविधाता हम भी हैं, 
हमारी जमीन छीनी गयी तो हम मर जाएंगे, हमें जीने दो,
हमारी जमीन मत छीनो।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

प्रकृति के रंग

प्रकृति! तुझमें कितने रंग है,कितने जीवित
दृश्यों का संकलन है तेरा स्वरूप? कितनी
विविधता है तुझमें,कितना नैसर्गिक आनंद है
तेरा दर्शक बनने में।

कौन सी कूची है तेरे पास ? कहाँ से लाती है तू
इतने रंग जिन्हें गिना नहीं जा सकता....कोई
चित्रकार क्या तुझे बनाएगा.....तेरा
चित्रकार तो बैठा है किसी पर्वत पर, किसी
नाग की शैय्या पर, किसी कमल पर...जिसने
तुझे रच तो दिया....सजीव तो किया पर छिप
गया कहीं।
पर कहाँ तक बचता? उस कलाकार ने मानव
बनाया और मानव ने ढूंढ लिया अपने रचयिता
को,अभिव्यक्त किया अपनी कृतज्ञता कभी
शब्दों से तो कभी विराट कैनवास पर तो
कभी रंगमंच पर।
सोचता हूँ कि मैं चित्रकार क्यों नहीं हूँ?
क्यों नहीं उकेर पाता मैं छवि उन
कलाकृतियों की जिन पर प्रकृति मौन रही,
जो दृश्य छिपे रहे चित्रकारों से। मन कहता है
कि कूची उठा लूँ, खोज लूँ कोई कैनवास
विशालतम प्रकृति में।
मैं चित्रकार कभी नहीं था, मेरी
रचनात्मकता बस शब्दों तक सीमित रही
किन्तु शब्द तो स्वाभाव से ही अपूर्ण हैं। कभी
व्याकरण की तो कभी शिष्टाचार की
सीमाओं में जकड़े हुए; हलंत, प्रत्यय, उपसर्ग,
अलंकार और न जाने कितने अनिवार्य नियमों
के पालन करने को बाध्य, आडम्बरों की
दासता में तड़पते शब्द।
विधाता के कृत्या (यह कृत्य से पृथक है) को
कौन अभिव्यक्त कर सकता है चित्रकार के
अतिरिक्त? शब्द शिल्पी असहाय है इस दशा
में।
अभिव्यक्ति के लिए शब्द पर्याप्त नहीं होते,
शब्द सीमित हैं क्योंकि इन्हें मानव ने बनाया
है अपनी सूझ-बूझ से,
किन्तु कला सम्पूर्ण है, कला ईश्वर है।
प्रकृति के वे दृश्य जिन्हें शब्द जानते ही नहीं,
क्या वर्णित करेंगे?
किसी पर्वत पर कोई अभिसारिका बैठी हो
किसी किसी कल्पना में गुमसुम सी, किसी
महर्षि की ब्रम्ह से मौन वार्तालाप जहाँ न
शब्दों की आवश्यकता हो न ही अभिव्यक्ति
की, किसी माँ का वात्सल्य, या गंगा की
अविरल धरा क्या शब्दों से व्यक्त हो सकी है
कभी?
कौन शब्द शिल्पी है जो शब्दों में संवेदना भर
दे?
शब्दों की एक सीमा है न?
किन्तु
चित्रकार एक कूची उठाता है और मानवीय
कल्पना से परे शिवत्व की ऐसी छवि बनाता है
जिसे मानव पूजता है। पत्थरों को काटकर
उसमे संवेदना भरता है, निर्जीव को सजीव
बनाता है। कभी-कभी अखरता है कि मैं,
चित्रकार क्यों नहीं? कलम छोड़ कुछ सूझता
ही नहीं, न कोई दृश्य न अभिसारिका न
अभिनय, न शाश्वत कला...शब्द अपूर्ण हैं न?