बुधवार, 10 जून 2015

शून्य होंगे जब सारे भाव एक होंगे दो धुर विपरीत





तुम्हारे मधुर गीत के बीच
लयों का आरोहण-अवरोह,
और तुमसे एकल संवाद
आह कैसे ना उपजे मोह ?

अधर से निकले प्यारे गीत 
ह्रदय को मेरे लेते मोह,
चाहता मन समीप्य का भाव 
तुम्हें इसकी क्या कोई टोह ?

वाद्य यंत्रो पर झूमे खूब 
यामिनी तेरे पावन पांव,
नयनों में अचरज रहा अलग 
कामिनी चल बैठी क्या दांव?

गिर रहे मेरे सारे अस्त्र 
अंग सुनते न मन की बात, 
अराजक हुआ कलम का वीर 
कहो! कब तक आएगी रात?

होगा सायुज्य वहीं तुमसे 
शून्य होंगे जब सारे भाव,
एक होंगे दो धुर विपरीत 
प्रेम बरसायेगा अनुभाव।

होगी जयकार धरा पर तब 
समय भी गायेगा गुणगान,
दिशाएं हो जाएँगी धन्य 
गढ़ेगी सृष्टि नए प्रतिमान।

- अभिषेक शुक्ल

(कामायनी पढ़ने के बाद ही लिखा था....प्रसाद इफ़ेक्ट भी कह सकते हैं.)

(तस्वीर- pexels.com)

सोमवार, 1 जून 2015

मंहगाई के अच्छे दिन


जैसे-जैसे आम आदमी की कमाई कम होती जा रही है मंहगाई उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है। सरकार की नीतियों का सीधा प्रभाव तो समाज के निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग पर पड़ता है, तकलीफें तो इन्हें ही झेलनी होती हैं। एक तरफ कम आमदनी दूसरी तरफ मँहगे होते दैनिक दिनचर्या में शामिल सामान,एक आम आदमी किस तरह से घर चलाए? हर कदम पे टैक्स, हर उत्पाद पर मंहगाई से आमना- सामना तो आम आदमी का होता है,बड़े लोगों के जेब पे तो मंहगाई का कोई असर पड़ता ही नहीं।
हर आपदा सबसे पहले आम आदमी को चपेट में लेती है। आर्थिक सुधार  के नाम पर जिस तरह मोदी सरकार ने सर्विस टैक्स बढ़ाया है उसका सीधा असर तो आम जनता पर ही होना है, यही आम जनता जो सरकार बनाती है और सरकार इन्ही के लिए कब्रें खोदती है। आम आदमी जाए कहाँ? दैनिक उपयोग की वस्तुएं जब मंहगी होती है तो एक सामान्य व्यक्ति का किचन हिल जाता है। चायपत्ती से लेकर सरसों के तेल तक की मंहगाई और फिर एल.पी.जी का चक्कर कमाने वाले को दिन में तारे दिखने लगते हैं जब घर में समान की एक लम्बी लिस्ट बनती है। खाने-पीने के सामान में कोई कटौती भी करे तो भूखे मरे।
आम आदमी की ज़िन्दगी में बस एक किचन नहीं खर्चे और भी हैं। एक मध्यम वर्गीय परिवार में अब ईंधन से चलने वाले संसाधन आम हो गए हैं, जीवन का अपरिहार्य अंग बन गए हैं पर आज-कल की मंहगाई को देखकर लगता है कि ये अंग शीघ्र ही शिथिल होने वाले हैं। मोदी सरकार की नींव ही मंहगाई और भ्रष्टाचार विरोधी थी पर जाने क्यों न भ्रष्टाचार कम हुआ न मँहगाई। कांग्रेस के पतन में भी मँहगाई और भ्रष्टाचार दोनों का महत्वपूर्ण योगदान था। न जाने क्यों मोदी सरकार दोनों मुद्दों को गंभीरता से नहीं ले रही है?
पेट्रोल और डीज़ल के बढ़ते दाम हर बार आम आदमी की कमर तोड़ते हैं, पर सरकार इन्हें मंहगा करती जा रही है जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें अब भी कम ही हैं। कुछ प्रश्न जनता को कचोटते हैं। मोदी सरकार से जनता ने उम्मीदें कुछ ज्यादा पाल ली थीं तभी तो आज जनता व्यथित है। वादे आसमानों में किये जाते हैं और उन पर अमल धरती पर लेकिन सरकार के पावँ कहीं और ही जमे हुए हैं।
अच्छे दिनों की उम्मीद में मोदी सरकार बनी पर अच्छे दिन जाने कहाँ गुम हो गए हैं।
देश में एक बड़ी आबादी के सिर पर छत नहीं है। करोडों लोग बेघर हैं फुटपाथ पर सोते हैं। उनकी कोई पहचान नहीं है। कोई नहीं जनता उन्हें, कोई तीसरी दुनिया है उनकी। आज़ादी के बाद से आज तक सब कुछ बदल गया पर उनके हालात नहीं बदले। ये तब भी सड़क पर सोते थे और आज भी सड़क पर ही सोते हैं। जिस तरह की गरीबों को लेकर सरकार की नीतियाँ हैं कुछ बदलने वाला भी नहीं। क्या इनका बेघर होना ही अपराध है? क्या फूटपाथ पे मारना ही इनका भविष्य है?
भले ही इनके घरों में खाने के लाले पड़े हों पर मँहगाई की मार इन्हें भी झेलनी है। सबसे ज्यादा दलित-शोषित होने के बाद भी,खुले आसमान के नीचे सोने के बाद भी इन्हें सरकार कोई सब्सिडी नहीं देती,क्योंकि सरकार की नज़रों में ये तो हैं ही नहीं। जिनकी ज़िन्दगी सड़क से शुरू होती है उन्हें ख़त्म भी वहीँ होना होता है।
सरकार हर बार अमीरों की होती है। न मध्यम वर्ग, न निम्न वर्ग और न ही फुटपाथ वाले सरकार के निशाने पर होते हैं। वास्तव में सरकारें उद्दोगपतियों की होती हैं चाहे वो केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार।
कभी-कभी मन बहुत दुखी हो जाता है,जब सड़क पर सोए हुए लोग मिलते हैं। जीवन के अंतिम पड़ाव में पहुँच गए पर सर पे छत नहीं है। ये सरकारों की खोखली नीतियों का परिणाम है वर्ना सबके सिर पे छत होता। लोग सड़कों पर सोने के लिए बाध्य न होते।
बढ़ती मँहगाई को देखकर लग रहा है कि जिनके पास छत है भी उन्हें भी घर बेचना पड़ेगा क्योंकि अस्पताल से लेकर स्कूल तक की फीस बहुत मंहगी हो गयी है। दवाईयों के दाम आसमान पर,शिक्षा का दाम आसमान पर, गैस, पेट्रोल, डीज़ल सबके दाम आसमान पर,घरेलू सामानों के दाम आसमान पर, मेरे देश में सस्ता क्या है आम आदमी की जान? हाँ! लग तो यही रहा है।
किसान मर रहे हैं, ख़ुदकुशी कर रहे हैं, आम जनता त्रस्त है, गरीब दाने-दाने के लिए तरस रहा है,भ्रष्टाचार कदम-कदम पर काट खाने दौड़ रहा है, रेलवे का किराया आम आदमी की जेब खाली कर रहा है और सरकार सोच रही है अच्छे दिन आ गए।
अजीब हाल है देश का भी, यहाँ बातें बड़ी-बड़ी की जाती हैं और काम किये ही नहीं जाते। हर बार नए चेहरे मिलते हैं पर वे भी वर्षों पुरानी वंश परम्परा निभाते हैं।
भारतीय जनता वर्षों से प्रतीक्षारत है..अच्छे दिन कब आने वाले हैं?