मंगलवार, 31 मार्च 2015

ये कैसा धंधा है?

आज इंसान भले ही चाँद पर पहुँच चुका हो, आधुनिकता और विज्ञान अपने चरम सीमा पर हों पर इंसान के लिए भविष्य आज भी एक अनजान पहेली की तरह है ऐसी पहेली जो सुलझती नहीं। हर कोई भविष्य जानना चाहता है, अपने आने वाले कल में जाना चाहता है। भविष्य एक रहस्य है जो बहुत आकषर्क होता है। प्रायः लोग भविष्य जानने का प्रयत्न भी करते हैं बस कोई एक भविष्यवक्ता दिख जाए लोग पहुँच जाते हैं भविष्यवक्ता के चरणों में मानो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड का विपद इनके हाथों ही लिखा हो। भाविष्यवक्ताओं का आत्मविश्वास अनुकरणीय होता है। बोलते ऐसे हैं जैसे कि विधाता अपने सारे काम इन्ही से पूछ कर करते हों। झूठ की भी हद होती है पर ये लोग उनमे से हैं जो हदों को मानते ही नहीं। यह कहना सर्वथा अनुचित होगा कि इस यह विधा झूठी है, इसके अधिष्ठाता लोग झूठे हैं जो अपनी रोटी सेंकने के लिए दूसरों के भावनाओं से खेलते हैं। निःसंदेह ज्योतिष विद्या  बड़ी चमत्कारिक विधा है। विद्वानों  के बातों का प्रभाव कई बार जीवन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनके द्वारा निर्देशित कर्म एक व्यथित व्यक्ति को शांति भी पहुँचाते हैं। विडम्बना इस बात की है कि भारत में हर दूसरा व्यक्ति अपने आपको विद्वान समझता है। कुछ ऐसे ही विद्वान व्यक्ति अपने जैसा एक और विद्वान बना देते हैं। बात विद्वता तक रहे तो ठीक है पर जब नए विद्वान को ज्ञान मिलता है अनर्थ तब शुरू होता है। ज्योतिष विद्या विशुद्ध गणित और आस्था का विषय है।किन्तु जब आस्था धंधा होने लगे तब? भारत में आस्था भी धंधा का विषय है अन्यथा धर्म का कारोबार इतनी फलता-फूलता नहीं। व्यथित कौन नहीं है? जब विपदा चारो तरफ से पड़ती है, जब व्यक्ति हारने लगता है तब उसे भगवान् याद आते हैं। कुछ अपवाद भी हैं जिन्हें हर परिस्थिति में भगवान् अभीष्ठ हैं, किन्तु ऐसे लोग गिनती के हैं। हमारे धर्मग्रन्थ कहते हैं कि भगवान् कण-कण में हैं। भगवान् सर्वव्यापी हैं, सबकी सुनते हैं फिर भगवान  को सुनाने के लिए माध्यम की आवश्यकता क्यों? भक्ति का दलाली से कैसा रिश्ता? भक्तों की बात भगवान् तक पहुँचाने वालों की कोई कमी नहीं है। थोडा पैसा और थोडा यश मिलते ही भगवान और भाग्य के प्रतिनिधि टेलीविज़न पर आने लगते हैं। सुबह-शाम बाबा जी का दरबार सजने लगता है। इनके भक्तों की लंबी कतारें लगने लगतीं हैं। बाबा कहते हैं-बेटा ये कर वो कर, यहां जा-वहां जा। ऐसे बाबाओं की प्रसिद्धि सीमा पार भी जाती है। कलियुग में भक्त कम और अंधभक्त ज्यादा हैं। इन भगवान के प्रतिनिधियों को कई बार कारागार  की सैर भी करनी पड़ती है अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण, पर शीघ्र ही मुक्त कर दिए जाते हैं । भाई! इनकी पहुँच तो विधाता तक होती है। हाँ, कुछ ऐसे भी हैं जो खानदान सहित कारागार में हैं। असल में वे उनमे से हैं जो भक्ति की उस अवस्था में हैं जहाँ भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। भक्त स्वयं को भगवान  समझ बैठता है और भगवान स्वयं को भक्त। खैर उनकी भक्ति ही निराली है। भगवान् के प्रतिनिधियों का धंधा कभी मंद नहीं होता है। साल के बारह महीने इनकी चांदी रहती है। दुःख के हिसाब से दाम लगाये जाते हैं । जितना दुःख उतना दाम। कभी राहु रूठते हैं तो कभी केतु। इनके शांति के लिए व्यक्ति ज्योतिषियों, भगप्रतिनिधियों(जैसे जनता के प्रतिनिधि जनप्रतिनिधि वैसे भगवान के प्रतिनिधि भग प्रतिनिधि) का सहारा लेता है पर परिणाम शून्य का शून्य रहता है। किसी से दस हज़ार तो किसी से बीस हज़ार, भगवान  के दाम  भी यजमान देखकर लगाये जाते हैं। ग्रहों का रूठना-मानना समय का चक्र न होकर सौदा हो गया है। ग्रह भी घूस खाते हैं। देखो भारत से भ्रष्टाचार कहाँ तक पहुँच गया। ठेकेदारों ने सलाह देने के भी दाम लगा रखे हैं। पांच सौ रुपये मे बाबा जी बस दस मिनट सलाह देंगे। ग्रह शांति तो बिना पाँच हज़ार बाबा जी को अर्पित किये बिना होते ही नहीं, पाँच हज़ार तो शुरुआत के होते हैं बाद में तो बढ़ते रहते हैं बाबा जी के निर्देशानुसार। आम आदमी की जेब से इतने पैसे निकल जाएँ तो अपने-आप ही ग्रह शांत हो जाते हैं। आज-कल आस्था विज्ञापन की विषय-वस्तु हो गयी है। कई टी.वी चैनलों पर एक चुड़ैल जैसी अम्मा आती हैं। बड़ी हाई-फाई व्यवस्था है उनकी। समाधान फ़ोन पर ही कर देती हैं और अपने किताब के लिए मोटा पैसा वसूलती हैं। अगर आप मुफ़्त वाले चैनल पर कोई फ़िल्म पूरे मनोयोग से देख रहें हों और इनका विज्ञापन अचानक से आ जाए तो इन्हें डंडे मारने का मन करेगा। एक मोटा तगड़ा बाबा भी विज्ञापन में दिखते हैं। दुनिया के पहले और आखिरी व्यक्ति हैं जो दुनिया के सभी समस्याओं का विनाश एक ही पन्ने में कर देते हैं। पूरी किताब पढ़ते-पढ़ते तो आदमी सफलता का पर्याय बन जाता है इनके दावे के अनुसार। बहुत दुःख होता है हम भारतीयों की बुद्धि घास चरने क्यों चली जाती है? असफल होने का कारण खोजने के बजाय पाखंडियों के चंगुल में फंसते हैं और अंततः भगवान् की सत्ता पर ही प्रश्न उठाते हैं। हद है इंसानी फितरत भी बिन ठोकर खाए आँख नहीं खुलती।

रविवार, 29 मार्च 2015

कवी! तू याद किसे करता है?


जब-जब ये आँखें खुलतीं हैं
किरणों से नज़रें मिलती हैं,
दिल हौले से ये कहता है
कवि! तू याद किसे करता है?

गुरुवार, 26 मार्च 2015

समान नागरिक संहिता: राष्ट्र की आवश्यकता

समान सिविल संहिता : राष्ट्र की आवश्यकता
एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति उस राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता होती है। धर्मनिरपेक्षता राज्य की ऐसी व्यवस्था का  नाम है जिसमें राज्य किसी धर्म विशेष का अनुयायी नहीं होता अपितु सभी धर्मों का संरक्षक होता है। धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों को एकता के सूत्र में पिरोती है।
धर्मनिरपेक्ष संविधान की यही विशेषता होती है कि राज्य किसी भी धर्म का प्रवर्तक नहीं होता तथा राज्य किसी भी तरह का धार्मिक, सांप्रदायिक या जातीय पक्षपात नहीं करता।
संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र की धार्मिक विविधता देखते हुए ही संविधान के भाग चार में राज्य के निति निर्देशक तत्वों में एक अनिवार्य तत्त्व 'सामान सिविल संहिता' (अनुच्छेद 44)का प्रावधान रखा।
इस अनुच्छेद के अनुसार-" राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक सामान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।"
किन्तु कुछ मूलभूत विडंबनाओं के कारण 'राज्य के निति निर्देशक तत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्त्व के प्रवर्तनीय होने का प्रयास महज एक स्वप्न बन कर रह गया।
सामान नागरिक संहिता, विधि के समक्ष समता की बात करता है जो अनुच्छेद चौदह में वर्णित है।
इस अनुच्छेद के अनुसार- "राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के सामान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।"
यह अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों में से एक है। समता का अधिकार एवं प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रायः बहस का विषय बनते हैं जब धार्मिक कानून और सिविल कानून का टकराव होता है।
यदि देश में एक समान सिविल संहिता लागू होती तो ऐसे टकराव नहीं जन्म लेते।
समान सिविल संहिता के अंतर्गत तीन मुख्य तथ्य प्रकाश में आते हैं-
प्रथम- व्यक्तिगत विधि
(धार्मिक कानून)
द्वितीय- संपत्ति के अधिग्रहण तथा संचालन का अधिकार
तृतीय- विवाह, तलाक तथा गोद लेने की विधि।
धार्मिक आधार पर कानूनी विभेद इन्ही तीन आधारों पर होता है।
सामान्यतः भारत में हिन्दू, मुस्लिम, पारसी तथा इसाईयों के अपने-अपने व्यक्तिगत सिविल विधियां हैं जिनके आधार पर उनके पारिवारिक वाद निपटाए जाते हैं।
इस तरह कभी-कभी कानून तथा व्यक्तिगत विधियों का टकराव होता है जिससे समाज में तनाव जन्म लेता है।
एक ही देश के समान नागरिकों के लिए कानून अलग-अलग क्यों है?
उदाहरण के लिए विवाह व्यवस्था चुनते हैं।
एक मुस्लिम पुरुष चार विवाह एक समय में कर सकता है। चार विवाह करने के बाद भी उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 494 जिसमे 'पति या पत्नी के जीवन काल में पुनः विवाह करना' जो कि किसी अन्य धर्मावलम्बी के लिए अपराध है तथा जिसकी सजा सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा किन्तु एक मुस्लिम पर यही धारा चार विवाह तक अमान्य होगी क्योंकि ऐसा उनका धार्मिक कानून कहता है।
क्या किसी महिला के लिए यह किसी मानसिक प्रताड़ना से कम है? क्या यह उस विवाहता के प्रेम के साथ छल नहीं है? क्या धर्म के नाम पर ऐसी कुप्रथा एक गणतांत्रिक राष्ट्र में उचित है जिसे कानून की मान्यता प्राप्त हो।
एक व्यक्ति के लिए एक कृत्य अपराध की श्रेणी में है और दूसरे व्यक्ति के लिए वही कृत्य अपराध नहीं है, यह कैसी विधि के समक्ष समता है?
हिन्दू विधि तथा सामान नागरिक संहिता-
एक दौर ऐसा चला था जब बड़ी संख्या में लोग इस्लाम धर्म ग्रहण कर रहे थे। वजह सिर्फ इतनी ही थी कि बहु विवाह करने पर भी न्यायिक प्रक्रिया से मुक्त रहें।
सरला मुद्गल बनाम भारत संघ(ए.आई.आर 1995) के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को देश की एकता और धार्मिक सहिष्णुता के लिए सामान नागरिक संहिता को प्रवर्तनीय करने का निर्देश दिया तथा अगस्त 1995 में विधि एवं न्याय मंत्रालय के सचिव को सरकार के रुख को लेकर रिपोर्ट मांगी किन्तु परिणाम वही ढ़ाक के तीन पात।
किसी फैसले के पूर्व ही तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक मुस्लिम उलेमा से कहा कि- आप चिंता न करें। समान सिविल संहिता कभी लागू नहीं होगी।
इस वाद के बाद एक के बाद एक अनुच्छेद 32 के अंतर्गत चार याचिकाएं दर्ज की गईं। पहली याचिका महिलाओं के सामाजिक कल्याण के लिए काम करने वाली एक रजिस्टर्ड सोसाइटी द्वारा लोकहित वाद के रूप में दायर की गयी। दूसरी,तीसरी और चौथी क्रमशः मीना माथुर, गीत रानी तथा सुष्मिता घोष ने दायर किया। उक्त वादों में एक बात आम थी।एक सवाल था  कि पति द्वारा धर्मपरिवर्तन कर लेने मात्र से विवाह विच्छेद पूर्ण हो जाता है?
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि- केवल धर्म परिवर्तन कर लेने मात्र से विवाह विच्छेद पूर्ण नहीं होता,  जब तक की विवाह विच्छेद की डिक्री उपयुक्त न्यायलय द्वारा घोषित न कर दिया जाए।
अर्थात हिन्दू धर्म में विवाह विच्छेद केवल धर्मपरिवर्तन कर लेने से नहीं होता, ऐसा तब हो सकता है जब न्यायलय ने विवाह विच्छेद डिक्री पारित की हो।
 एक समान नागरिक संहिता ऐसे कृत्यों को समाज में पनपने से रोकने में सहायक होगी। हिन्दू विधि का संहिताकरण हो चुका है तथा हिंदुओं को सामान नागरिक संहिता से आपत्ति नहीं है।
ईसाई धार्मिक विधि तथा समान नागरिक संहिता-
जॉन वल्लमत्तोम बनाम भारत संघ(ए.आई.आर 2003) वाद में एक इसाई धर्मगुरु ने उत्तराधिकार अधिनियम,1925 की धारा 118 के क़ानूनी मान्यता को इस आधार पर चुनौती दी कि यह विधि के समक्ष समता (अनुच्छेद-14) का उल्लंघन करता है तथा यह धारा  विधि के विरुद्ध एवं असंवैधानिक है।
धारा 118, एक व्यक्ति जिसका कोई भतीजा या भतीजी या रक्त संबंधी हो, उसे अपनी संपत्ति को धार्मिक उद्देश्य के लिए वसीयत द्वारा दान देने से रोकता था।
कोर्ट ने धरा 118 को असंवैधानिक घोषित किया।
समान नागरिक संहिता जनता के हित की बात करती है न की धार्मिक अधिकार छीनने की।
मुस्लिम विधि तथा समान नागरिक संहिता-
मुस्लिम विधि में आज भी महिलाओं के कल्याण के लिए संकीर्ण प्रावधान प्रचलन में हैं।
शरियत कानून के अनुसार एक तलाकशुदा महिला को पति से केवल इद्दत काल तक (जो कि नब्बे दिनों का होता है ) ही भरण-पोषण पाने का अधिकार है। इद्दत काल बीत जाने पर पत्नी, पति से भरण-पोषण के लिए मांग नहीं कर सकती।
इस नियम को लेकर तथा सिविल प्रकिया संहिता में प्रायः टकराव होता रहता है। सुप्रीम कोर्ट ने
नूर सबा खातून बनाम मो. कासिम (ए.आई.आर1997)
में निर्णय दिया कि- एक मुस्लिम महिला अपने पूर्व पति से तब तक भरण-पोषण ले सकती है जब तक कि बच्चे वयस्क न हो जाएं।
इस फैसले के विरोध में पूरा मुस्लिम समुदाय उतर आया और बड़ी बहस हुई।
दंड प्रक्रिया संहिता की धरा 125 में पत्नी के भरण-पोषण का प्रावधान है किन्तु यही धारा कई बार बहस का विषय बनती है। मुस्लिम अपने धार्मिक कानून और व्यक्तिगत कानून का हवाला देकर छूट जाते हैं। यदि देश में एक समान नागरिक संहिता लागू होती तो मुस्लिम महिला इतनी असुरक्षित नहीं होती।
विवाह पंजीकरण सभी के लिए अनिवार्य हो- समान सिविल संहिता की दिशा में एक सशक्त कदम-
सुप्रीम कोर्ट ने सीमा बनाम अश्वनी कुमार(ए.आई.आर2006) के
ऐतिहासिक फैसले में निर्धारित किया कि विवाह का पंजीयन अनिवार्य हो तथा यह नियम सभी पर सामान रूप से लागू होगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला नितांत अनिवार्य था।
एक समान नागरिक संहिता यदि लागू  होती है तो न केवल सभी धर्म के लोगों को लाभ मिलेगा बल्कि सदियों से सीमित अधिकारों में कैद मुस्लिम महिलाओं को जो चाह कर भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का विरोध नहीं कर पाती थीं, इस दशा से मुक्त हो सकेंगी तथा आधुनिक युग में समाज के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल सकेंगी।
इस्लाम में महिलाओं को तलाक सम्बन्धी अधिकार बहुत सीमित मिले हुए हैं, वहीं मुस्लिम पति के अधिकार असीमित हैं। समान नागरिक संहिता के प्रवर्तनीय होने से नारी सशक्तिकरण होगा तथा आधुनिक युग में उत्तपीड़ित महिलाएं भी आजादी की साँस ले सकेंगी।
केंद्र सरकार को मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से परे हटकर एक समान नागरिक संहिता को प्रवर्तनीय करना चाहिए तथा सबके लिए एक समान सिविल कानून होना चाहिए।
शुरुआत में हर सार्थक परिवर्तन का विरोध होता है। एक समय के बाद जब लोग इस परिवर्तन से लाभान्वित होंगे तो स्वतः ही विरोध करना छोड़ देंगे।
कोई भी आचरण जो लोक आचरण के विरूद्ध हो तथा कुछ इस तरह से विनियमित होता हो जिससे एक वर्ग विशेष, लिंग विशेष के लिए वह आचरण अभिशाप हो तो ऐसी विधि को प्रतिबंधित करना ही श्रेयष्कर है।
नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों में एक अनिवार्य तत्त्व है किन्तु ऐसा धार्मिक आचरण जो वर्तमान समय में अनुपयुक्त हो उसे त्यागना ही उचित है।
इस युग में भी बहु-विवाह जैसी कुप्रथाओं का होना आधुनिकता के नाम पर तमाचा है, ऐसी परम्पराएँ कहीं से भी प्रसंगिक नहीं लगतीं।
केंद्र सरकार को समान नागरिक संहिता को प्रवर्तनीय कर राष्ट्र में एक सामान सिविल संहिता लागू करना चाहिए जिससे देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित हो, तथा संविधान उस उद्देश्य की ओर उन्मुख हो जिस हेतु हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने बलिदान दिया।
यही भारतियों की उन महान आत्माओं के प्रति सच्ची कृतज्ञता
 होगी।
जय हिन्द! वंदे मातरम्।

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

आलोचना और रिश्ते (भइया की कलम से)


******आलोचना और रिश्ते************;
ऑस्कर वाईल्ड का कहना है कि " आलोचना
आत्म-कथा का एकमात्र विश्वसनीय रूप है|"
ऑस्कर का यह कथन सटीक है क्योंकि;
आलोचना; आलोचना के विषय-वस्तु से ज्यादा
आलोचक के बारे में व्याख्या करती है| यहॉ तक
कि मनोवैज्ञानिक किसी की आलोचना
सुनकर ही आलोचक का एक visual diagnostic
hypothesis तैयार कर सकते हैं|
आलोचना John gottman के उन चार प्रसिद्ध
apocalypse घुड़सवारों में से एक है;जो ९०% से
भी अधिक सटीक बैठती है| बाकी तीन अन्य
stonewalling, defensive, and contemptuous
प्रकृति से भी अधिक घातक है!
आलोचना रिश्तों के लिये घातक हो जाती
है जब यह-
*व्यक्ति के चरित्र अथवा व्यक्तित्व पर आक्षेप
करता हो; अथवा;
*किसी प्रकार का आरोप लगाती हो|
*आलोचना सुधारों पर आधारित न हों|
*"एकमात्र right way" पर आधारित आलोचना|
*अनादर या अवमूल्यन(Belittling.)|
घनिष्ठ रिश्तों में ;अधिकॉश मामलों में बहुत
नगण्य विषय से प्रारम्भ होकर;समय के साथ-२
आत्म-अवनति के साथ-२ increasing resentment
तक पहुंच जाता है|
ऐसा देखा गया है कि,जिसकी आलोचना की
जाती है वह व्यक्ति नियन्त्रित महसूस करने
लगता है; यह नियन्त्रण आलोचक को अधिक
frustrated करता है; जिसके परिणाम -स्वरूप,
आलोचक और अधिक अनियन्त्रित होकर
आलोचना करने लगता है; और इसी प्रकार
आलोचना का शिकार व्यक्ति अधिकाधिक
नियन्त्रित होता चला जाता है|
आलोचकों की यह आत्म-अवनति एक आवश्यक
तथ्य का निष्पादन करती है;आलोचना के
द्वारा किसी भी प्रकार का स्वीकार्य
व्यावहारिक परिवर्तन लाने में; आलोचक
पूर्णतया असफल रहता है| कोईअल्पकालिक
लाभ आलोचक को मिल भी जाये तो इस
लाभ को resentment में तब्दील होने से कोई
रोक नहीं सकता|
आलोचना सदैव निष्फल हो जाती है;
क्योंकि यह ऐसी दो चीजें आरोपित करती है
जिसे मानव-मात्र घृणा करता है:-
**आलोचना गलती का स्वीकरण चाहती
है;और हम स्वीकरण से परहेज करते हैं|
**आलोचना अवमानना (devalued)करती है;और
हम अवमानित महसूस करने से नफरत करते हैं|
.
जबकि लोग गलतियों के स्वीकरण से परहेज
करते हैं;तो हमें उनको गलती स्वीकार करवाने
से बेहतर है कि हम आलोचना के स्थान पर
सहयोग करें | ऐसा लगता है कि आलोचक
मानव-स्वभाव के एक अति-आवश्यक अवयव से
गाफिल होते हैं| यह मानव स्वभाव है कि आप
मान दीजिये ; सहकारिता स्वत: आ
जायेगी;जबकि अवमानना स्वत: एक बाध
(resistant) है|
यदि आप व्यवहार में परिवर्तन चाहते हैं; तो
अपेक्षित व्यक्ति के प्रति मान व्यक्त
कीजिये;और यदि आपको उस व्यक्ति से बाध
(resistance) अपेक्षित है तो आलोचना
कीजिये|
***************************
आलोचक व्यक्ति निश्चित तौर पर इतने
चालाक होते हैं कि वह ये भांप लेते हैं कि
उनकी आलोचना प्रभावी सिद्ध नहीं हो
रही है; फिर आखिर वो यह करते क्यों हैं?
वह ऐसा करते हैं क्योंकि आलोचना "अहं" के
defence का सबसे सरलतम रूप है;हम किसी की
आलोचना इस लिये नहीं करते कि हम किसी
व्यवहार अथवा संव्यवहार(behavior or attitude)
से असंतुष्ट होते हैं| हम किसी की आलोचना
इसलिये करते हैं कि हम उस व्यवहार या attitude
से किसी प्रकार से खुद को अवमानित महसूस
करने लगते हैं|आलोचक बहुत जल्दी अपमानित
महसूस करने लगता है;और ego-defence की जरूरत
भी आलोचक को ज्यादा ही होती है||
ऐसा पाया गया है कि वास्तव में आलोचक
अपने बचपन में ही अपने अभिभावकों;भाई-ब
हनों या दोस्तों के द्वारा आलोचित होते
रहते थे;आलोचना विशेषतया छोटे बालकों के
लिये अधिक कष्टदायक हो सकती है| बच्चे
आलोचना और अस्वीकरण(rejection) में फर्क
नहीं कर पाते; हम उनके सामने आलोचना तथा
अस्वीकरण को स्पष्ट करने का कितना भी
प्रयत्न क्यों न कर लें;बच्चों को इस अन्तर की
समझ ही नहीं होती||"आप अच्छे बच्चे हो परन्तु
आपका यह व्यवहार सही नहीं है" इस प्रकार
का स्पष्ट अन्तर ही उनके मनोभावों को
नियन्त्रित कर सकता है|
दस साल से कम उम्र के किसी बालक के लिये
किसी भी आलोचना का एक-मात्र अर्थ
होता है कि वह बुरा बच्चा है और अयोग्य है|
चाहे आलोचना कितनी भी soft paddled क्यों
न हो||
***जीवन व मृत्यु का प्रश्न***
.
बच्चा जिन्दा रहने( survival )रहने के लिये
सिर्फ यही कर सकता है कि वह अपने
अभिभावकों से भावनात्मक रूप से जुड़ा रहे|
आलोचना के प्रभाव स्वरूप बच्चा जब स्वत: को
उस भावनात्मक जुड़ाव के लिये अयोग्य पाने
लगता है और यह स्थिति काफी हद तक जीवन
और मृत्यु का प्रश्न खड़ा कर देती है|ऐसी
परिस्थिति में बालक आलोचना की असह्य
वेदना को कम करने के लिये, स्व-आलोचना के
पथ पर चल पड़ता है
क्योंकि खुद को दिया गया दर्द "अपनों" के
अवाञ्छनीय rejection से कहीं अच्छा होता है|
प्रारम्भिक किशोरावस्था में वही बालक
खुद को "आक्रमक"तौर पर प्रस्तुत करने लगता
है-जो अधिक शक्तिशाली आलोचक बना
देता है|किशोरावस्था के आखिरी चरण में
वही बालक स्वयं एक प्रखर आलोचक के तौर पर
उभरता है| प्रत्येक आलोचक प्रारम्भ में आत्म-
आलोचक होता ही है|आलोचक जितना कठोर
अन्य लोगों के प्रति होता है;निश्चित तौर
पर स्वयं के प्रति भी उतना ही कठोर होता
है|
आलोचना बनाम प्रोत्साहन
( Criticism vs. Feedback)
आलोचकों का यह भ्रम सदैव बना रहता है कि
वह आलोचना के जरिये लोगों को
प्रोत्साहित करते हैं;जबकि स्थिति भिन्न
होती है; वास्तव में आलोचना और प्रोत्साहन
के भेद को इस प्रकार समझा जा सकता है:-
*आलोचना केन्द्रित होती है कि "गलत क्या
है?" (उदा•तुम फीस जमा क्यों नहीं कराते?)
जबकि प्रोत्साहन केन्द्रित होता है कि "
सुधार कैसे किये जायें"(उदा• चलें फीस जमा
कर आयें)
*आलोचना की विषय वस्तु किसी के
व्यक्तित्व के बारें में कुछ "बुरी" बातें होती हैं
(उदा•तुम कुन्द-बुद्धि और आलसी हो|)
प्रोत्साहन व्यवहार पर केन्द्रित होता है न
कि व्यक्तित्व पर|(उदा•क्या हम फीस जो
बाकी रह गई हैं;उन्हें निपटाते चलें)
*आलोचना अवमानना करती है(e.g.यह तुमसे
नहीं होगा)
प्रोत्साहन हौसला बढ़ाती है(e.g.मुझे पता है
आप काबिल हैं ;परन्तु हमदोनों मिलकर इसे
आसानी से निपटा सकते हैं|)
*आलोचना में आरोप छुपा होता है(जैसे-ये
आर्थिक तंगी तुम्हारी वजह से आई है)
प्रोत्साहन भविष्य पर फोकस करता है(उदा•
हम इस तंगी से निकल सकते हैं यदि हम दोनों
यह चीजें छोड़ दें|)
* आलोचना नियन्त्रण करने की कोशिश है(मैं
जानता हूं कि सही क्या है? मैं तुमसे ज्यादा
पढ़ा हूं)
प्रोत्साहन दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान
करता है-(e.g.मैं आपके मार्ग-चयन के अधिकार
कद्र करता हूं;भले ही मैं इससे सहमत नहीं हूं|
*आलोचना अवपीड़क(coercive) होती है(तुम
वही करोगे जो मैं चाहता हूं नहीं तो
परिणाम भुगतना पड़ेगा)
प्रोत्साहन किसी भी कीमत पर coercive
नहीं हो सकती(उदाहरण-हमें पता है कि
मिलकर ऐसा रास्ता निकाल लेंगे;जो हम
दोनों के लिये अच्छा होगा)|
प्रोत्साहन के लिये सावधानियॉ
यदि आप गुस्से अथवा क्षोभ में हैं तो feedback
न दें| क्योंकि वह आलोचना के श्रेणी में आयेगी
क्योंकि लोग आपके "आशय" का नहीं आपके
emotional tone के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं|
*प्रोत्साहन सदैव दिल से दें;दिमाग से नहीं|
.
*हमेशा सुधारों पर केन्द्रित रहें|
*ऐसे व्यवहार पर ध्यान दें जो अपनों के लिये
उपयुक्त न हों|
*परिवर्तनों को बढ़ावा दें न कि
आत्मविश्वास गिरानें में विश्वास रखें|
*गम्भीरतापूर्वक मदद करनें की पेशकश करें|
*दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करें|
*हमेशा अपने माफिक कार्य न करने पर या
किसी भी गलती पर दण्ड अथवा प्यार न करने
की धमकी बच्चों को कभी भी न दें|
तो यदि आप आलोचक व्यक्ति हैं तो इससे पहले
कि यह वृत्ति आपके रिश्तों का नाश कर दे;
बदल लें खुद को......
||शुभमस्तु||
-अनुराग शुक्ल

( प्रस्तुत आलेख मेरे भइया ने लिखा है। भइया अधिवक्ता हैं और मेरे शिक्षक भी। मेरी लेखन शैली, थोडा बहुत दर्शन जो भैया से सीखा है और भी बहुत कुछ...मेरे पथ प्रदर्शक हैं भइया।
नहीं जनता कि मेरा भविष्य कैसा है पर मेरे भविष्य के नींव की ईंट भइया हैं...इमारतें तो मुझे गढ़नी है।उनके प्रति कृतज्ञता का यही एक मात्र साधन है। है न? )

रविवार, 15 मार्च 2015

एक पगली लड़की

एक लड़की मैंने देखी है
जो दुनिया से अनदेखी है
दुनिया उससे अनजानी है
मेरी जानी-पहचानी है।
रहती है एक स्टेशन पर
कुछ फटे-पुराने कपड़ों में
कहते हैं सब वो ज़िंदा है
बिखरे-बिखरे से टुकड़ों में।
प्लेटफॉर्म ही घर उसका
वो चार बजे जग जाती है
न कोई संगी-साथी है
जाने किससे बतियाती है।
वो बात हवा से करती है
न जाने क्या-क्या कहती है
हाँ! एक स्टेशन पर देखा
एक पगली लड़की रहती है।
मैंने जब उसको देखा
वो डरी-सहमी सी सोयी थी
आँखें  उसकी थीं बता रहीं
कई रातों से वो रोई थी।
बैडरूम नहीं है कहीं उसका
वो पुल के नीचे सोती है,
ठंढी, गर्मी या बारिश हो
वो इसी ठिकाने होती है।
वो हंसती है वो रोती है
न जाने क्या-क्या करती है
जाने किस पीड़ा में  खोकर
सारी रात सिसकियाँ भरती है।
जाने किस कान्हा की वंशी
उसके कानों में बजती है
जाने किस प्रियतम की झाँकी
उसके आँखों में सजती है।
जाने किस धुन में खोकर
वो नृत्य राधा सी करती है
वो नहीं जानती कृष्ण कौन
पर बनकर मीरा भटकती है।
उसके चेहरे पर भाव मिले
उत्कण्ठा के उत्पीड़न के,
आशा न रही कोई जीने की
मन ही रूठा हो जब मन से।
है नहीं कहानी कुछ उसकी
पुरुषों की सताई नारी है
अमानुषों से भरे विश्व की
लाचारी पर वारी है।
वो पगली शोषण क्या जाने
भला-बुरा किसको माने
व्यभिचार से उसका रिश्ता क्या
जो वो व्यभिचारी को जाने?
वो  मेरे देश की बेटी है
जो सहम-सहम के जीती है
हर दिन उसकी इज्जत लुटती
वो केवल पीड़ा पीती है।
हर गली में हर चौराहे पर
दामिनी दोहरायी जाती है,
बुजुर्ग बाप के कन्धों से
फिर चिता उठायी जाती है।
कुछ लोग सहानुभूति लिए
धरने पर धरना देते हैं,
गली-नुक्कड़-चौराहों पर
बैठ प्रार्थना करते हैं,
पर ये बरसाती मेंढक
कहाँ सोये से रहते हैं
जब कहीं दामिनी मरती है
ये कहाँ खोये से रहते हैं।
खुद के आँखों पर पट्टी है
कानून को अँधा कहते हैं
अपने घड़ियाली आंसू से
जज्बात का धंधा करते हैं।
जाने क्यों बार-बार मुझको
वो पगली याद आती है,
कुछ घूँट आँसुओं के पीकर
जब अपना दिल बहलाती है।
उसकी चीखों का मतलब क्या
ये दुनिया कब कुछ सुनती है
यहाँ कदम-कदम पर खतरा है
यहाँ आग सुलगती रहती है।
हर चीख़ यहाँ बेमतलब है
हर इंसान यहाँ पर पापी है,
हर लड़की पगली लड़की है
पीड़ा की आपाधापी है।

मंगलवार, 10 मार्च 2015

किस्मत की मार

कभी-कभी समाज कुछ ऐसी झलकियाँ दिखता है जो अकारण ही अवसाद का कारण बनती हैं।
आज सुबह-सुबह पापा से मिलने पुद्दन पहलवान आए, उनकी एक खास बात है ये है कि वो पापा से या तो अपने मुक़दमे की तारीख़ पूछने के लिए आते हैं या किसी को लेकर आते हैं जो कभी पुलिस वालों से तो कभी गावँ के दबंगों का सताया हुआ होता है। पापा दीन दुनिया के जितने लुटे हुए लोग होते हैं उन्ही का केस लड़ते हैं।कभी-कभी लगता है कि विधिक आचार के समस्त यम और नियम अकेले मेरे पापा ही अपनाते हैं। पीड़ित को न्याय मिले भले ही खर्चा अपने जेब से जाए, पर न्याय अवश्य मिले।
आज पुद्दन काका के साथ दो बिलकुल डरे हुए लोग आए। पूछने पर पता चला दोनों बाप-बेटे हैं। गरीबी चेहरे से ही झलक रही थी। बाप करीब अस्सी साल का रहा होगा और बेटा लगभग पचास साल का। शक्ल से दोनों बीमार लग रहे थे लगें भी क्यों न गरीबी अपने आप में एक बीमारी है जिसका इलाज़ बस रब के हाथ में है।
पापा खाना खाकर बहार निकले तो पता चला की झूठे दावे का केस है। पुलिस आई और बाप-बेटों को हड़का के चली गयी। पापा ने विस्तार से पूछा तो पता चला कि पुलिस ने पूरे घर का मुआयना किया और पीड़ितों पर लाठी बजा कर चली गई।
विरोधी दमदार रहे तो गरीब बेचारे की जान जाती ही है। वैसे भी हमारे देश में पुलिस वालों को हड्डी फेंक दी जाए तो काम पूरे मनोयोग से करते हैं।
पैसे में बड़ा दम है पुलिस वाले तो वैसे भी  डाकू होते हैं।
एक निवेदन अपने हमउम्र मित्रों से है आप सब भविष्य हो भारत के जिस दिन कोई उच्च संवैधानिक पद मिले जिससे पुलिस वालों को आप हड़का सकें, पुलिस वालों का इतना शोषण करना कि ये खून के आँसू रोएँ। इन्हें तिरस्कृत करना, अपमानित करना और कुत्ता बना के रखना क्योंकि भारतीय पुलिस इसी योग्य है। सबसे भ्रष्ट कौम पुलिस ही है। इतना उत्पीड़ित करना इन्हें कि आत्महत्या करने की नौबत आ जाए.....ख़ुदा बहुत नेक दिल है तुम पर रहम करेगा।
देखो विस्तार के चक्कर में तो असली बात ही भूल गया।
मेरे गावँ से थोड़ी ही दूर पर यादवों का एक गावँ है। अब हल्की बिरादरी तो है नहीं ये..लालू और मुलायम जैसे प्रतापी इस वंश में पैदा हुए हैं। जोखू और लौटन भी जाति से यादव हैं। बस जाति से यादव हैं पर यादवों जैसे गुण नहीं हैं। जोखू बाप हैं और लौटन बेटे। बेटा बाप से अधिक उत्साही लगता है किन्तु बेटा बहुत कमजोर दिखता है। कमजोर है भी तभी तो करीब अठ्ठाइस
बरस पहले पत्नी छोड़ कर चली गयी थी। लौटन की पत्नी ने दूसरी शादी कर ली बगल के ही गावँ में। एक पति के लिए सबसे बड़ा दर्द यही है कि पत्नी छोड़ के चली जाए।
गावँ में हरिजनों की संख्या भी कम नहीं है कभी दलित-शोषित थे पर आज बाहुबली हैं। धन किसी को भी दुराचारी बना सकता है। एक पीड़ा का दर्द बेचारा विगत दो दशक से झेल रहा था कि अचानक एक झूठे केस में फंस गया। केस बना हरिजन उत्पीड़न का।
एक व्यथित और शोषित व्यक्ति क्या उत्पीड़न करेगा पर कानून इसे कब मानता है? कानून भावनाओं से कब चलता है। भारत की भ्रष्ट शासन व्यवस्था से अनभिज्ञ कौन है। लौटन और जोखू झूठे केस में जेल काट के आये हैं। घर की जो जमा पूँजी थी वो जमानत में खर्च हो गई। बाहर आए तो मुकदमा चला, वकील से लेकर हाकिम तक सब पैसे चूसने वाले होते हैं। आमदनी का साधन खेती था। करीब पंद्रह बीघे जमीन थी जिसमे पाँच बीघा बेचना पड़ा। खरीदने वाला दबंग निकला कुछ हज़ार देकर लाखों का माल हड़प लिया। पैसा मांगने बाप-बेटे जाते हैं पर दुत्कार और धमकी के अलावा कुछ नहीं मिलता। सत्ता से सहयोग मिलने से रहा.. बड़ी मछली छोटी मछली वाली कहावत तो अपने सुनी ही होगी।
किसी-किसी पर समय का ऐसा प्रकोप चलता है कि विपत्ति पर विपत्ति आती रहती है। इतना कम न था कि एक मुकदमा और हो गया। इस बार पूर्व पत्नी ने दावा किया कि उसका बड़ा बेटा लौटन का है। महिला के बड़े बेटे की उम्र लगभग बीस वर्ष की है। बड़ा बेटा लौटन के एकाकीपन के लगभग आठ वर्षों बाद पैदा हुआ। भारतीय डाक भी शायद इतने सालों बाद डिलिवरी न करे जितने सालों के विलगन के फलस्वरूप पुत्र रत्न का जन्म हुआ। महामिलन का इतने वर्षों बाद परिणाम तो महाभारत काल में भी नहीं आता था पर कलियुग में तो कुछ भी हो सकता है।
जोखू ने पापा से कहा कि सरकार! हमार लरिकवा नामर्द है। एकरे कौने मेर लड़िका होइ जाई?
(मेरा लड़का नामर्द है, ये कैसे बाप बन सकता है।)
लौटन की पूर्व पत्नी ने थाने में पैसे देकर जोखू के घर की नपाई करा ली है। गावँ वाले चाहते हैं की बाप-बेटे घर से निकल जाएँ। बाप-बेटे दोनों घबराए हुए लग रहे हैं। जमीन छिनने का डर साफ़ तौर पर झलक रहा है। पहले से गरीबी का दंश, चौतरफा शोषण और अब ये नया ड्रामा। पहले से मुश्किलें कम न थीं जो एक और आ टपकी।
सच्चाई जो भी हो मुझे नहीं पता पर उन्हें देख कर मुझे रोना आ गया। एक बाप जो जीवन के अंतिम पड़ाव में है। उसकी कोशिश है कि जीवन के अंतिम पलों में राहत मिले पर राहत, चैन तो धनाढ्यों के लिए है। गरीब तो दुःख सहने के लिए ही पैदा होते हैं।
एक वक़ील के दिन की शुरुआत कुछ इसी तरह होती है। हर दिन एक नई कहानी..एक नया दुखड़ा।
पापा की अब आदत हो गई है ऐसे किस्सों से निपटने की। भइया के लिए अनुभव नया है पर धीरे-धीरे भावुकता कम हो रही है। मैं अधर में हूँ। इस कशमकश में हूँ कि इस भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा बनूँ या भ्रष्टाचार के खिलाफ़ उतरूँ.....मन तो यही कह रहा है पर ख़ुद से किया वादा तोड़ना नहीं है.......पढ़ाई करूँ...उलझन तो वक्त खुद ही सुलझा देता है।
शायद जोखू और लौटन को न्याय मिल जाए.....पर उन अनगिनत असहायों का क्या जो ख़ुद के लिए वकील भी नहीं रख सकते..दो वक़्त की रोटी का ठिकाना नहीं कोर्ट में न्याय कैसे खरीदेंगे?
भारत सरकार को "सत्यमेव जयते" की जगह कोई और स्लोगन तलाशना चाहिए...वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह अप्रासंगिक प्रतीत हो रहा है.....