सोमवार, 8 अगस्त 2011

अधूरी हसरत

जिनके याद में ताजमहल बना
उनकी रूह तो तड़पती होगी
संगमरमर की चट्टानों
के नीचे
जहा हवा भी आने से डरती है
वहां दो रूहें कैसे
एक साथ रहती होंगी ?
मुमताज को जीते जी तो कैद होना पड़ा
कंक्रीट की मोटि दीवारों में ,
सब कुछ तो था शायद
आजादी के अलावा ,
ख़ुशी के दो पल मिले हो या न मिले मिले हो
पर कैद तो जिन्दगी भर मिली

उन्हें आजाद कबूतरों को देख kar
उड़ने की चाहत तो थी
मगर सल्तनत की मल्लिका
सोने के पिंजड़े में n
कैद थी .
शहंशाह ने उन्हें समझा तो एक खिलौना
उनसे खेला उन्हें चूमा ,
खिलौने के अलावा
कुछ और न थी
मुमताज बेगम ,
उनकी दीवानगी ही थी की
मौत को अपना हमसफ़र बना लिया
शायद मौत के आगोश में आजादी दमन थम ले ,
शायद खुली हवा , और
प्रकृति के प्रेम का
सानिध्य मिले ,
पर हसरते कब पूरी होती हैं ?
दफ़न हुई तो वह पर भी
रूह तड़पती रह गयी

पथ्थरों नीचे

एक अधूरी टीस भारती ..........

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें